Mahatma Gandhi ji
लेख इतिहास

महात्मा गांधी के अनुसार सत्य एवं ईश्वर की अवधारणा

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सत् के वास्तविक अर्थ को समझने के लिये इसके शाब्दिक स्वरूप को समझना आवश्यक है। सत् को अंग्रेजी में राईट (Right) कहा जाता है। जिसकी व्युतपप्ति लेटिन के रेक्टस (Rectus) शब्द से हुई है। ऐक्टस शब्द का अर्थ है नियमानुसार इस प्रकार सत् शब्द का शब्दार्थ हुआ नियमानुसार शब्दिक अर्थ के आधार पर हम सत् को परिभाषा इस प्रकार निरूपति कर सकते हैं कि जो कर्म किसी आचार विषयक व नियम के अनुसार होता है उसे सत् कहा जाता है।

परम तत्व :

गांधी जी के अनुसार सत्य ही तत्व है और तत्व ही सत्य है। प्रत्येक सत्य कर्म में एवं प्रत्येक सत्यानुभव में हमें ईश्वर की सत्ता का आभास मिलता है। गांधी जी के लिए सत्य एवं ईश्वर में कोई अंतर नहीं है। यद्यपि ईश्वर के शिव एवं सुंदर रूप पर गांधी जी ने विशेष ध्यान नहीं दिया पर इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि उनके लिए ईश्वर केवल “सत्य” रूप ही है और उसका ‘शिव’ एवं ‘सुंदर’ से कोई सरोकार नहीं है।

उनके ‘शिव’ एवं ‘सुंदर’ सत्य के ही अनिवार्य परिणाम है। जो ‘सत्य’ रूप होगा, उसमें ‘शिव’ और ‘सौन्दर्य’ अनिवार्य रूप से पाये जायेगें। इस प्रकार “सत्य’ ‘शिव”एवं ‘सुंदर’ तीन पृथक वस्तुएँ न होकर एक तत्व के तीन विभिन्न रूप है।

ऊपर जिस सत्य के विषय में वर्णन किया गया उसका साक्षात्कार प्रथम हमें अपरोक्षानुभूति द्वारा होता है। पर उस शाश्वत और अनन्त सत्य का पूर्ण साक्षात्कार करना परिच्छिन्न एवं सीमित मानवों के लिए संभव नहीं है।

अतः उसका दर्शन हमें केवल आंशिक रूप में ही होता है। इतना होते हुए भी वह आंशिक एवं सापेक्षिक सत्य, उस पूर्ण एवं निरपेक्ष सत्य तक पहुंचने का सोपान है। गांधी जी ने स्वयं कहा है जब तक मुझे उस निरपेक्ष एवं पूर्ण सत्य का साक्षात्कार नहीं हो जाता, सापेक्षिक सत्य का में कदापि परित्याग नहीं कर सकता। वह सापेक्षिक सत्य ही तब तक के लिए “मेरी ढाल और तलवार है।”

तात्पर्य यह है कि यद्यपि गांधी जी के लिए सत्य एक स्थिर पूर्ण तत्व है पर उसका ज्ञान गत्यात्मक एवं अनुभूति आंशिक है। आंशिक ज्ञान से प्रयत्न द्वारा हम पूर्ण ज्ञान तक पहुंच सकते हैं।

गांधी जी ‘सत्य की शक्ति की सत्याग्रह अनुवाद है ‘सत्य का आग्रह अपने जीवन भर गांधी अहिंसा पालन के ढंग पर नये-नये प्रयोग करते रहे। जिसके फलस्वरूप उनके विचारों में ‘सत्याग्रह’ का एक स्पष्ट ढंग विकसित हो गया। परंतु पहली बात तो ‘सत्याग्रह’ शब्द से ही आपदित है वह है कि यह सत्य का आग्रह है।

गांधी के अनुसार सत्य तो ईश्वर है। अतः सत्याग्रह ‘ईश्वरीय आग्रह’ है। व्यवहारिक दृष्टि से इसका अर्थ हो जाता है, सत्य के प्रति पूर्ण निष्ठा, सत्य का दामन हर स्थिति में पकड़े रहना।

ईश्वर सच्चिदानन्द है सत् चित और आनंद । ईश्वर का सार है सत् अर्थात सत्य। सत्य का अर्थ है। जिसका अस्तित्व है। जहां सत्य है वहीं शुद्ध ज्ञान है सत् (सत्य) चित और आनंद एक ही तत्व के विभिन्न पक्ष है। इसलिए गांधी ने कहा है कि ईश्वर ही सत्य है। फिर उन्होंने यह भी कहा कि ‘अब मैं तो यह कहता हूँ कि सत्य ही ईश्वर है।

सत्य के प्रकार

सत्व दो प्रकार के हैं निरपेक्ष या साध्य और सापेक्ष या साधन रूप सत्य का साध्य रूप निरपेक्ष, सार्वभौम तथ देश काल के परे है। इस रूप में सत्य ही ईश्वर है। इसमें समस्त ज्ञान भी सन्निहित है। दैहिक सीमाओं में इसका पूर्ण रूप से साक्षात्कार संभव नहीं है पर इसकी ओर अग्रसर होने के लिए सदाचार आवश्यक है।

सत्य मात्र वाणी या विचार तक सीमित नहीं है अपितु कर्म से भी संबंध है। यह जीवन के किसी विशेष क्षेत्र से नहीं अपितु संपूर्ण जीवन से संबंध है सदाचार ही सत्य का नैतिक पक्ष है। सदाचार तप और त्याग से ही संभव है। तप से आत्म शुद्धि होती है और त्याग से मोह तथा स्वार्थ की भावना से मुक्ति मिलती है।

सत्य दर्शन में मोह और स्वार्थ ही बाधक होते है। इसलिए इसका त्यागकर सत्य की प्राप्ति संभव है। चूंकि सदाचार ही सत्य का व्यावहारिक पक्ष है, अतः सत्य का ज्ञान होने पर उसी के अनुसार कर्म होगा। इसीलिए गांधी ने ‘ईश्वर सत्य है” के साथ-साथ ‘सत्य ही ईश्वर है’ कहना आरंभ किया।

गांधी के उदार विचारों का मूल आधार उनका यही केन्द्रीय विचार है। इसी आधार पर वे बार-बार कहते हैं कि सत्य के प्रति निष्ठापूर्ण आस्था में यह शक्ति है कि वह सभी धर्मों के लोगों को यहां तक कि मार्क्सवादी तथा निरीश्वरवादी विचार वालों को भी एक सूत्र में बांध सकता है। इसी आधार पर गांधी वेदिचक कहा करते थे कि सच पूछा जाव तो कोई भी सही अर्थ में निरीश्वरवादी है ही नहीं, निरीश्वरवादी हो ही नहीं सकता।

महात्मा गांधी ने अपना संपूर्ण जीवन सत्य की साधना में और सत्य की खोज में समर्पित कर दिया था। अतः उन्होंने अपनी आत्मकथा का शीर्षक भी मेरे सत्य के प्रयोग रखा।

महात्मा गांधी ने 1925 में अपनी आत्मकथा “मेरे द्वारा सत्य के लिये किये गये प्रयोग” इस आत्म कथा में महात्मा गांधी ने अपने जन्म से लेकर 1920 तक की घटनाओं को सच्चा, स्पष्ट एवं सही वर्णन किया है। यह महात्मा गांधी की अधूरी आत्का कथा है।

प्राचीन काल से ही नहीं वस्तु वर्तमान काल में भी धर्म और दर्शन पर ही नहीं, अपितु मनुष्य के सामान्य जीवन पर भी ईश्वर के अस्तित्व से संबंधित विश्वास का बहुत गहरा तथा व्यापक प्रभाव रहा है। थोड़े से विचारक और दार्शनिकों को छोड़कर संसार के अधिकतर मनुष्यों शताब्दियों से ईश्वर की सत्ता में विश्वास करते रहे हैं और करते रहेगें तथा उनके इन विश्वास ने उनके विचारों तथा आचरणों को व्यापक रूप से प्रभावित किया है।

विश्व के अधिकतर दार्शनिक और धर्म परायण व्यक्ति किसी न किसी पर विचार करने वाले दार्शनिक के लिए इस प्रकार का विशेष महत्व है कि ईश्वर के अस्तित्व का ठीक-ठीक अर्थ क्या है।

गांधी जी ने प्रेम को ही ईश्वर कहा है इसी प्रकार ईसाई धर्म में भी ईश्वर को प्रेम कहा गया है। इस विषय में यह ध्यान रखना चाहिये कि ईश्वर का प्रेममय होना बौद्धिक तर्क द्वारा सिद्ध न होकर आत्मोन्नति और ईश्वर प्राप्ति का एक साधन सब प्राणियों से प्रेम करना माना जाता है।

ईश्वर के विषय में गांधी जी एक अन्य विशिष्ट कल्पना भी है। गांधी जी ने प्रथम ईश्वर को सत्य रूप माना फिर उन्होंने इस सतय को प्राकृतिक विधान का रूप

दिया। गांधी जी को सगुण रूप उतना प्रिय नहीं था जितना की उनका निर्गुण रूप। एक बार हरिजन में लिखा था में ईश्वर की व्यक्ति रूप नहीं मानता।’

गांधी ईश्वर को सर्वव्यापी कहते हैं। ईश्वर ही वह सत् है जिसमें जिसके द्वारा सब कुछ अस्तित्ववान है या गतिशील है। इस विवरण में भी गांधी ईश्वरवादी ईश्वररूप तथा तात्विक सत् का एकीकरण कर देते हैं। अतः ईश्वर का सर्वव्यापी होने का अर्थ एक ओर तो यह कि वह कण-कण में व्याप्त है, तथा दूसरी ओर यह भी है कि हर तत्व में जो सत् है वह ईश्वर ही है।

गांधी जी का यह विश्वास है कि प्रत्येक वस्तु और प्रत्येक प्राणी एक अपरिवर्तनीय नियम से संचालित है और यह नियम ईश्वर है जिसमें गांधी सत्य के रूप में मानते हैं। सत्य गांधी जी की अंतिम सत्ता की परिभाषा न होकर स्वयमेव सर्वोच्च सत्ता है। अतः सत्य ईश्वर है अथवा ईश्वर सत्य है।

इन दोनों ही वाक्यों को समानार्थक समझा जा सकता है। दर्शन शास्त्र के इतिहास में अंतिम सत्ता को सत्य के रूप में बहुत कम स्वीकार किया गया किन्तु गांधी जी गिन चुने विचार को में से एक है जिन्होंने अपनी दार्शनिक धारणाओं को सत्योन्मुख बनाया है।

गांधी ने मानव जीवन से संबंधित हर संभव पक्ष पर विचार किया है उनके इस विशद विचार की विशिष्टता यह है कि उनके विचार का केन्द्रीय पक्ष, जो किसी न किसी रूप हर विचार में मूल रूप में व्यक्त है। उनका ईश्वर-विचार है जो उनका ‘सत्य’ के मूल रूप का विचार भी है।

इस प्रकार के वैष्णव ईश्वरवाद की छाप गांधी के मानस पर थी। फलतः उनका ईश्वर • विचार भी पूर्णतया ईश्वरवादी है। यह भी ठीक है किसी-किसी स्थल पर गाधी के ईश्वर-विवरण के अद्वैव मत के निर्गुण रूप के विवरण जैसी कुछ बात कही जाती है। किन्तु वैसा इस कारण होता है कि गांधी के यह विश्वास है कि ‘सगुण’ तथा निर्गुण का जो शास्त्रीय अंतर है, वह सामान्य आस्थावान तथा धार्मिक व्यक्ति के लिये एक प्रकार से अप्रसांगिक है।

उनकी यह मान्यता है कि ईश्वर विचार के द्वारा हम मात्र अपनी बौद्धिक जिज्ञासाओं को ही शांत नहीं करते, बल्कि इस विचार से जीवन को बल. संतोष तथा भावनात्मक ढांढस भी प्राप्त होता है। गांधी का कहना है कि ईश्वर में आस्था तभी सच्ची आस्था हो सकती है जब वह आस्थावान व्यक्ति को जीवन के साथ संयोजन में सहायक सिद्ध हो। आस्था में यह बल निहित होता है। वेस्पष्ट कहते हैं।

“He is no God who merely satisfies the intellect, if he ever does. God to be god must rule the neart and transform it” “

प्रश्न है कि इस प्रकार का भ्रम उत्पन्न कैसे होता है ? तो इसके उत्तर में शंकर जैसे अद्वैत विचारक कहते हैं कि यह अज्ञान के कारण दृष्टि भ्रम है। इस अज्ञान जगत, उसका भ्रामक रूप आदि की व्याख्या के लिए अद्वैत दर्शन में ईश्वर तथा माया का विचार उत्पन्न होता है।

यह ईश्वर जगत की स्पष्टा है किन्तु जब जगत की प्रवृत्ति ही भ्रामक है तो इस भ्रम के तात्विक भ्रम निवारण में जगत के साथ ईश्वर की भी आवश्यकता नहीं रहेगी, केवल एक सत् ब्रम्ह रह जाएगा। तो अद्भुत दर्शन में तात्विक दृष्टि से ईश्वर भी अवास्तविक ही हो जाता है।

वैष्णव विचारक यह स्वीकार नहीं कर सकते, अतः अद्वैत की पृष्ठभूमि में, एक प्रकार से उसके प्रतिवाद में विभिन्न वैष्णव विचारकों में ‘जगत तथा ईश्वर दोनों को सत् रूप को स्थापित करने की चेष्ठा थी। इनकी मान्यता है कि ईश्वर ही सत् है, सृष्टि का रचयिता है, तथा संरक्षक है।

इस विचार के अनुरूप वैष्णव दर्शन में एक प्रधान विचार का भी उद्ध हो जाता है। अद्वैत वेदान्त जब एक सर्वथा अनिर्वचनीय ब्रम्ह को परम सत् मानता है तो ब्रम्हानुभूमि का ढंग निवृत्ति ज्ञान ही हो सकता है। ध्यान ध्यान एकाग्रता और समाधि का ही ढंग हो सकता है। क्योंकि अर्मूत, निर्गुण सत् के साथ वैयक्तिक अथवा मानवीय अथवा भावनात्मक संबंध संभव नहीं है।

इस स्थल पर भी वैष्णव विचारक अद्वैत विचारकों के विपरीत मानते हैं कि ईश्वर की ईश्वर सगुण है उससे भावनात्मक भक्ति का संबंध संभव है। फलतः जहां अद्भुत दर्शन में ज्ञान मार्ग को प्रधानता मिली, वैष्णव दर्शन में भक्ति मार्ग ही सर्वोपरि बना।

इन विचारकों का कहना है शुद्ध ज्ञानात्मक ढंग तो ईश्वर को पा ही नहीं सकता क्योंकि वह अपने ढंग में निहित ज्ञाता एवं ज्ञेय के द्वैत से ऊपर नहीं उठ सकता इनके अनुसार ईश्वर प्राप्ति का अर्थ है। ईश्वर को आत्मसात् करना, अपने अंतर में अनुभूत करना।

यह तभी संभव हो सकता है जब हर प्रकार का द्वैत समाप्त हो जाय और यह भावनात्मक भक्ति के द्वारा ही संभव है। वैष्णव मत के कारण यह विचार सामान्य जनमानस के अनुरूप सिद्ध हुआ तथा समान्य लोगो में सहजता में इसे अपना लिया। अपने सहजता एवं सरलता के कारण यह किसी न किसी रूप में घर-घर में प्रवेश कर गया।

किन्तु गाधी के ईश्वर विचार की इस ईश्वरवादी धारा को एक वैचारिक कठिनाई का भी सामना करना पड़ता है। गांधी ने ईश्वर तथा सत्य का एकीकरण किया है। कठिनाई यह है कि सत्य जो एक अवैयक्तिक भाव है, उसको व्यक्तित्व पूर्ण ईश्वर के साथ एक रूप कैसे किया जा सकता है।

गांधी ईश्वर विचार को समझने में इस प्रारंभिक कठिनाई से उपजी समस्या को समझना आवश्यक है। गांधी जी ने इसे अपने ढंग से सुलझाया है।

इस समस्या के समाधान के लिये गांधी की इस संदर्भ में दी गयीं मूलोक्ति – ‘सत्य ईश्वर है’ का विश्लेषण अनिवार्य है, तथा इसके लिये एक से गांधी की विचार-व्यवस्था में प्रवेश करना पड़ता है। ऐसा लगता है कि गांधी की इन कठिनाई की अवगति थी क्योंकि वे अपनी बात को पुनः पुनः स्पष्ट का प्रयास करते हैं।

वे विचार के उस उस भ्रम को स्पष्ट करना चाहते हैं जो उन्हें ईश्वर को ‘सत्य’ कहने के लिये वाध्य करता है।

उनके शब्दों में –

“In my early youth I was taught to repeat what is Hindu Soriptures are known as one thousand names of God. But these one thousand names of God were by no means exhanstive.

We believe and think it is the truth-that God has as many names as there are Greatures and therefore we also say that God is nameless, and since God has many forms we also consider him formless and since He speaks to us in so many tonguses, we consider.

Him to be speechless and so on. if it is possible for the human tongue to give the fullest description I have come to the conclusion that for myself God is Truth.

इसका कुछ और विश्लेषण करे। प्रथमतः यह तो स्पष्ट ही है कि ईश्वर को ‘सत्य’ कहा जाना एक विचारपूर्ण खोज का परिणाम है। एक ‘नाम’ या ‘कोटि’ की खोज का परिणाम है जिससे ईश्वर को संगतरूप में विभूषित किया जा सके।

पुनः यह भी स्पष्ट हो रहा है कि सत्य ही एक ऐसी कोटि है जिसे पूर्णतया वास्तविक कहा जाता है निषेधात्मक नामों के द्वारा ईश्वर का भावात्मक स्वरूप प्रकाश में नहीं आता और भावात्मक नामों में ‘सत्य’ ही ऐसा कर पाता है। सत्य ही उपत्ति ‘सत्’ के साथ एक रूप करने में दोनों बाते कहीं जा रही हैं कि ईश्वर है तथा यह भी कि ईश्वर का निषेध नहीं हो सकता।

किन्तु बाद में गांधी अपने कथन में थोडा परिवर्तन किया । वे ईश्वर को सत्य व कहकर सत्य ही ईश्वर कहने लगे। वैसे इस प्रकार का परिवर्तन तर्कतः उपयुक्त नहीं होता। हम सभी मरणशील है वाक्य के स्थान पर यह नहीं कर सकते कि सभी मरणशील जीव मनुष्य है। किन्तु तर्क शास्त्र में भी इस अयुक्ता का अपवाद है।

यदि किसी वाक्य के उद्धेश्य तथा विधेय दोनो एकरूप हो दोनो पूर्ण तादाक्य हो, तो इस प्रकार का परिवर्तन भी तर्कत उपयुक्त होगा। अतः इस परिवर्तन के समर्थन में एक बात तो यही कही जा सकती है। कि जब गांधी के अनुसार ईश्वर तथा ‘सत्य’ पूर्णतया एकरूप है तो ईश्वर सत्य है के स्थान पर ‘सत्य’ ईश्वर है कहने में कोई दोष नहीं है।

किन्तु गांधी ने जिस कारण से यह परिवर्तन किया है वह इतना सरल नहीं है। उनके मन में इस परिवर्तन का विचार कैसे उपजा इसका विवरण देते हुए वे कहते हैं।

“But deep down in me I used to say that thought God may be God God is truth above all. But two years ago I went to a step furtner and said truth is God, you will see the fine distinction between the tab statements, viz that God is Truth and Truth is God and I came to the conclusion after a continouns and relentless search after Truth….

“ईश्वर एक हो सकता है अनेक हो सकता है वह ईश्वरवादी हो सकता है।” सर्वेश्वरवादी हो सकता है केवल विभिन्नेश्वरवादी हो सकता है या किसी अन्य रूप का किन्तु सत्य है, उससे ऐसी विभिन्नतायें सूचित नहीं होती। पुनः इस परिवर्तन का इससे भी अधिक प्राथमिक एक अधार और है।

गांधी का कहना है ईश्वर पर तो बौद्धिक रूप से संशय किया जा सकता है इसका खण्डन व निषेध भी किया जा सकता है। किन्तु ‘सत्य’ का निषेध आत्म व्याघातक है। इतिहास क्रम में ऐसे संशय वादी तथा निरीश्वर वादी हुए हैं जिन्होने न सबल तर्को के द्वारा ईश्वर अस्तित्व का खण्डन किया है, किन्तु वे भी सत्य के खण्डन की कल्पना नहीं करते।

कोई बौद्धिक तर्क सत्य की नहीं नकार सकता। सच पूछा जाये तो ईश्वर समर्थक तथा ईश्वर विरोधी विचारकों के बीच यदि कोई सहभूतियुक्त मान्य बात है जिसके संबंध में उनमें भी मतभेद नहीं हो सकता। तो वह सत्य ही है। सत्य पूर्णतया व्यापंक एवं सार्वभौम भाव है।

गांधी बड़े सुंदर ढंग से कहते हैं कि यदि किसी निरीश्वर वादी को यह कहा जाय कि तुम सत्य भीरू हो तो वह इसे प्रसन्तापूर्वक स्वीकार कर लेगा। सत्य की इसी विशिष्टता के कारण गांधी इसे प्राथमिक बना देते हैं।

गांधी का कहना है कि ईश्वर संबंधी अन्य विश्वासों के कारण मानव को बहुत हानि हो चुकी है। अतः यह आवश्यक हो जाता है कि ईश्वर के स्थान पर उस भाव पर बल दिया जाय तो उनसे अधिक प्राथमिक है।

अतः गांधी कहते हैं कि सत्य के अतिरिक्त ईश्वर कुछ और है, तो वैसे ईश्वर की उन्हें आवश्यकता नहीं।

“सत्य’ क्या है तार्किक संदर्भ में तो इसे निर्णयों के एक गुण के रूप में कल्पित किया गया है, किन्तु तत्वमीमांसीय विवेचन में इसका विवरण कुछ भिन्न प्रकार से दिया गया है। वह ‘सत्य’ को सही “ज्ञान” के रूप में समझा गया है तथा सही ज्ञान उसे ही माना गय है जो सत् के अनुरूप हो।

भारतीय तत्व दर्शन में ‘सत्य’ का विशेष विचार उपलब्ध है जहा ‘सत्य’ को स्वतः प्रकाश माना गया है कहा गया है कि सत्य स्वतः अपने को व्यक्त करना रहता है। गांधी ‘सत्य’ इन सभी विवरणों के कुछ अंशो पर बल देते हैं, तथा सत्य की अपनी अवधारणा में किसी न किसी रूप में, इन सबो का सम्मिलित भाव बनाते हैं और इस रूप में सत्य को ईश्वर कहते हैं।

वस्तुतः इस जटिल अवधारणा को रूप देने में वे मुख्यतः सत्य के सरलतम सर्वप्रचलित भाव पर ही अपने को आधृत कर लेते हैं। सामान्य प्रचलित प्रयोग में ‘सत्य’ एवं सत् के भेद की प्रायः उपेक्षा हो होती है। गांधी तो दोनो के भेद को एक प्रकार से समाप्त ही कर देते हैं।

क्योंकि ‘सत्य’ शब्दों को वे ‘सत्’ शब्द से ही निकला हुआ समझते हैं। अतः गांधी के अनुसार सत्य मात्र वैचारिक कोटी नहीं है, मात्र यह निर्णयों पर लगने वाला भाव नहीं है, यह वास्तविकता है, सत् है।

अहिंसा का सरलतम अर्थ है ‘हत्या नहीं करना’। कभी-कभी इस शब्द ‘अहिंसा’ की व्यापकता को स्पष्ट करने के प्रयत्न में यह भी कहा जाता है कि ‘हत्या नहीं करना’ अहिंसा का एक उदाहरण मात्र है। इसी दृष्टि से अहिंसा का अर्थ कभी-कभी इस रूप में भी व्यक्त होता है कि यह किसी को किसी प्रकार की पीडा नहीं पहुंचाना है, किसी को किसी प्रकार की क्षति नहीं देनी है।