Maila Mukti Yatra

सदियों से चली आ रही अमानवीय प्रथा पर साहस ने विजय पाई

यह कैसी विडम्बना है कि आधुनिकता और विकास की कई मंजिलें पार करने के बाद भी सदियों से चली आ रही सिर पर मैला ढोने की अमानवीय प्रथा आज भी पूरी तरह से समाप्त नहीं हो पाई है। कानूनी प्रावधान होने के बावजूद भी समाज के दलित वर्ग को सदियों से इस बात के लिए […]

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यह कैसी विडम्बना है कि आधुनिकता और विकास की कई मंजिलें पार करने के बाद भी सदियों से चली आ रही सिर पर मैला ढोने की अमानवीय प्रथा आज भी पूरी तरह से समाप्त नहीं हो पाई है।

कानूनी प्रावधान होने के बावजूद भी समाज के दलित वर्ग को सदियों से इस बात के लिए मजबूर किया जाता रहा है। कि वे मानव मल को अपने सिर पर ढोयें।

महिलाओं ने हिम्मत जुटाई, मैला ढोने से मुक्ति पाई

जब कभी इन दलितों ने सिर पर मैला ढोने से मना किया तब-तब उन्हें तरह-तरह से ही सार्वजनिक कुओं और हैण्डपम्पों से पानी लेने की मनाही, होटलों में उनके प्रवेश को वर्जित करना, गाँव की दुकानों से सामान न मिलने देना सहित अनेक तरह के सामाजिक बहिष्कार एवं अपमानजनक प्रताड़ना आज भी जारी है।

मैला ढोने से मना करने वालों को अमन शांति से रहने नहीं दिया जाता। मैला ढोने का यह काम मुख्यतः महिलाओं के द्वारा किया जाता है, जिन्हें शादी के बाद विरासत में उनकी सास के द्वारा बांस की टोकरी इस काम के लिए सौंपी जाती है। इस घिनौने काम के बदले में उन्हें केवल बासी रोटियाँ और न्यूनतम राशि ही दी जाती है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह काम करना उनकी मजबूरी बन गयी है।

मैला मुक्ति यात्रा

ऐसे माहौल में मन्दसौर जिले के पारियाखेड़ी गाँव की लाली बाई ने हिम्मत जुटाकर इस काम का बहिष्कार किया। उन्होंने हिम्मत करके यह कार्य छोड़ कर स्लेट पेंसिल का कारखाना तथा खेतों में मजदूरी करके जीवन-यापन की शुरूआत की।

लाली बाई ने स्वयं तो इस कार्य को छोड़ा ही साथ ही साथ अपने समाज के अन्य सदस्यों को संगठित कर इस कार्य से मुक्ति दिलाई। वर्ष 2002 में लाली बाई राष्ट्रीय गरिमा अभियान के सामाजिक कार्यकर्ताओं से मिली।

उनके द्वारा बताये गये कानूनी प्रावधानों और सामाजिक समानता की बात सुनकर उन्होंने अपने आप को इस कार्य से मुक्त करने की घोषणा की। जब लाली बाई ने इस घिनौने कार्य को छोड़ा तो उन्हें तरह-तरह से धमकाया गया।

उन्हें सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा बुलाई गई बैठकों में जाने से रोका गया। परन्तु लाली बाई ने हिम्मत नहीं हारी और अपनी मुहिम जारी रखी। गाँव के इस मिशन में दलितों को मुर्दा जलाने की अनुमति नहीं थी।

लाली बाई ने अपने समुदाय के लगभग 100 लोगों को इकट्ठा कर श्मशान घाट में दलित परिवारों को भी मुर्दा जलाने का हक प्राप्त किया। लाली बाई के सतत प्रयासों से 163 महिलाओं ने सिर पर मैला ढोने के काम से मुक्ति पाई।

वर्ष 2012 के नवम्बर माह में लाली बाई ने 10 हजार महिलाओं को एकत्रित कर भोपाल से नई दिल्ली तक राष्ट्रीय गरिमा अभियान द्वारा आयोजित मैला मुक्ति यात्रा में भाग लिया, जिसमें 50 हजार से भी अधिक लोग शामिल हुये।

दिल्ली में उन्होंने कानून बनाने वालों के यहाँ दस्तक देकर 2013 में मैला ढोने का काम छोड़ने वालों के लिए आर्थिक सहायता के प्रावधान हेतु कानून बनवाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

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