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कहानी इतिहास

महात्मा गांधी

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महात्मा गांधी पैगम्बर भी थे और राजनीतिज्ञ भी उन्होंने राजनीति को धर्म से कभी अलग नहीं माना और सत्य, अहिंसा तथा सत्याग्रह के साधनों से भारत के राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम का संचालन किया। ब्रिटिश राज्य के विरुद्ध उनके रोषपूर्ण विद्रोह में भी उनकी गहरी नैतिक भावना ही निहित थी. उनके नेतृत्व में राष्ट्र एक विराट पुरुष की भांति अपनी निंद्रा त्याग कर जाग उठा था। उनकी अभूतपूर्व सफलता का सबसे बड़ा कारण यह था कि वह जनता के नेता होते हुये भी उसके साथ एकाकार हो गये थे।

“आने वाली पीढ़िया शायद मुशकिल से ही यह विश्वास करेगी कि गांधी जैसा हाइ-माँस का पुतला कभी इस धरती पर हुआ होगा। गांधी इंसानों में चमत्कार था” -आइंस्टीन

गांधी जी का जन्म 2 अक्टूबर 1869

मोहन दास करमचन्द्र गांधी (1869-1948) का जन्म 2 अक्टूबर 1869 को काठियावाद के पोरबंदर कस्बे के एक धर्म में आस्था रखने वाले घराने में हुआ था। वास्तव में उनका 1914 का दक्षिण अफ्रिका का प्रवास उनके आध्यात्मिक विकास का उषाकाल था।

Mahatma Gandhi
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गांधी जी ने “नवजीवन” गुजराती मासिक और यंग इंडिया अंग्रेजी साप्ताहिक का संपादन अपने हाथ में ले लिया। वस्तुतः महात्मा गांधी का व्यक्तित्व बहुआयामी और असाधारण था।

महात्मा गांधी ने राजनीति के धर्म से कभी अलग नहीं माना और सत्य, अहिंसा तथा सत्याग्रह के साधनों से भारत का राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम का संचालन किया

महात्मा गांधी ने अहिंसा को स्वर्ग का राज्य बनाया है। उनके अनुसार अहिंसा स्वर्गीय वस्तु है। इसमें सेवा और त्याग प्रमुख है। जिस प्रकार हिंसा के लिए मारना सीखना पड़ता है। उसी प्रकार अहिंसा की तालीम हासिल करने के लिए मरना सीखना आवश्यक है अहिंसा का पुजारी किसी से भयभीत नहीं होता, बस वह केवल एक ईश्वर से ही डरता है। अहिंसा में शरीर का दमन भी करना पड़ता है।

गांधी जी के लिए अहिंसा ही सत्य की अभिव्यक्ति है। अहिंसा प्रेम का सर्वव्यापी नियम है जिससे समस्त प्राणी संचालित है। अहिंसा ही सत्य है।

महात्मा गांधी इतिहास से साक्षात्कार करवाते हुये बताते हैं कि हमारे पूर्वज नरभक्षी थे बाद में नरभक्षी से पशुमक्षी बने। इसके बाद कृषि करके खाद्यान्न उत्पन्न करने लगे और हिंसा से दूर होने लगे तथा अहिंसा की ओर बढ़ते गये। पर आज भी मनुष्य का अस्तित्व संघर्ष और रक्तपान से घिरा हुआ है।

किन्तु यदि हम ध्यान से देखो तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि मनुष्य अपने लक्ष्य को संघर्ष और हिंसा के माध्यम से नहीं, प्रत्युत अहिंसा के माध्यम से ही प्राप्त कर सकता है। हमारे महान अवतारी पुरूषों ने भी अहिंसा का ही संदेश दिया है।

गांधी जी की अहिंसा की धारणा को केवल हिंसा न करने और दूसरे प्राणियों को हानि न पहुचाने तक ही सीमित नहीं है। वह एक विधायक सिद्धान्त है, जिनके प्रेम और करूणा, जीवन की पवित्रता तथा मानव प्रतिष्ठा सम्मिलित है।

इस प्रकार महात्मा गांधी ने अंहिंसा को हिंसा से सभी दृष्टि से श्रेष्ठ माना है, तथा अपने अहिंसक आंदोलनों से उन्होने विश्व के सामने वह उदाहरण प्रस्तुत किया जिसकी लोगों को कल्पना भी नहीं होती थी।

“आने वाली पीढ़ियां शायद मुशकिल से ही यह विश्वास करेगी कि गांधी जैसा हाड़-माँस का पुतला कभी इस धरती पर हुआ होगा। गांधी इंसानों में चमत्कार था”

  • आइंस्टीन के अनुसार महात्मा गांधी पैगम्बर भी थे और राजनीतिज्ञ भी उन्होंने राजनीति को धर्म से कभी अलग नहीं माना और सत्य, अहिंसा तथा सत्याग्रह के साधनों से भारत के राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम का संचालन किया।
  • ब्रिटिश राज्य के विरुद्ध उनके रोषपूर्ण विद्रोह में भी उनकी गहरी नैतिक भावना ही निहित थी, उनके नेतृत्व में राष्ट्र एक विराट पुरुष की भांति अपनी निद्रा त्याग कर जाग उठा था।
  • उनकी अभूतपूर्व सफलता का सबसे बड़ा कारण यह था कि वह जनता के नेता होते हुये भी उसके साथ एकाकार हो गये थे।
  • महात्मा गांधी ने अहिंसा को स्वर्ग का राज्य बनाया है।
  • उनके अनुसार अहिंसा स्वर्गीय वस्तु है। इसमें सेवा और त्याग प्रमुख है।
  • जिस प्रकार हिंसा के लिए मारना सीखना पड़ता है।
  • उसी प्रकार अहिंसा की तालीम हासिल करने के लिए मरना सीखना आवश्यक है अहिंसा का पुजारी किसी से भयभीत नहीं होता, बस वह केवल एक ईश्वर से ही डरता है।
  • अहिंसा में शरीर का दमन भी करना पड़ता है।

सत्य और अहिंसा का मार्ग

गांधी जी के लिए अहिंसा ही सत्य की अभिव्यक्ति है अहिंसा प्रेम का सर्वव्यापी नियम है जिससे समस्त प्राणी संचालित है। अहिंसा ही सत्य है।

महात्मा गांधी इतिहास से साक्षात्कार करवाते हुये बताते हैं कि हमारे पूर्वज नरभक्षी थे बाद में नरभक्षी से पशुभक्षी बने। इसके बाद कृषि करके खाद्यान्न उत्पन्न करने लगे और हिंसा से दूर होने लगे तथा अहिंसा की ओर बढ़ते गये।

पर आज भी मनुष्य का अस्तित्व संघर्ष और रक्तपान से घिरा हुआ है। किन्तु यदि हम ध्यान से देखो तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि मनुष्य अपने लक्ष्य को संघर्ष और हिंसा के माध्यम से नहीं, प्रत्युत अहिंसा के माध्यम से ही प्राप्त कर सकता है। हमारे महान अवतारी पुरूषों ने भी अहिंसा का ही संदेश दिया है।

गांधी जी की अहिंसा की धारणा को केवल हिंसा न करने और दूसरे प्राणियों को हानि न पहुचाने तक ही सीमित नहीं है। वह एक विधायक सिद्धान्त है, जिनके प्रेम और करुणा, जीवन की पवित्रता तथा मानव प्रतिष्ठा सम्मिलित है।

इस प्रकार महात्मा गांधी ने अंहिंसा को हिंसा से सभी दृष्टि से श्रेष्ठ माना है, तथा अपने अहिंसक आंदोलनों से उन्होंने विश्व के सामने वह उदाहरण प्रस्तुत किया जिसकी लोगों को कल्पना भी नहीं होती थी।

हिंसा पशुबल है, और अहिंसा आत्मबल

गाँधी जी के अनुसार मनुष्य में जहां एक ओर पशुबल है, वहीं दूसरी ओर में आत्मबल भी है। पशुबल मनुष्य की हिंसात्मक वृत्ति की ओर संकेत करता है, जो मानव सत्ता का आधार है। गाँधी जी कहते हैं, कि हम सब मौलिक रूप से कदाचित् पशु थे, किन्तु विकास प्रक्रिया में मनुष्य बन गए हैं।

अब मनुष्य को अंततः अपने लिये या तो उर्ध्वगामी दिशा चुननी होगी अथवा अधोगामी मार्ग अपनाए, खासतौर पर यदि इसे एक आकर्ष रूप से प्रस्तुत तिंकया जाये, किन्तु ध्यान देने की बात यह है कि

पशुबल मनुश्य का स्वभाव नहीं है। उसका वास्तविक सत्य उसकी आत्मा में निहित है। जो हिंसक न होकर, अनिवार्यतः प्रेममय और अहिंसात्मक है। पशुओं में भी आत्मा •सुषुप्त रूप से विद्यमान है, किन्तु वे शारीरिक बल के अतिरिक्त और कुछ नहीं जानते ।

मानव प्रतिष्ठा और सम्मान इसी में है कि मनुष्य आत्मबल को पहचाने और अहिंसा के नियम के अनुसार स्वयं को संचालित करें। मनुष्य में आत्मबल का जैसे ही उदय होता है, वह हिंसक नहीं रह सकता। संक्षेप में वह स्वार्थ और हिंसा से ऊपर उठकर प्रेम के शाश्वत जगत में प्रवेश पा जाता है। वह अपनी उन वृत्तियों में ऊपर उठ जाता है, जो मनुष्य और पशु में सम्मान है ।

इस प्रकार मनुष्य और पशु में भेद करके मनुष्य की प्रकृति में सर्वोच्च स्थान देता है, क्योंकि मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है, जो सजग रूप से हिंसा पर विजय प्राप्त कर आत्मसिद्धि की ओर अग्रसर हो सकता है ।

मनुष्य की गरिमा अहिंसा में है ।

गाँधी जी एक ओर मनुष्य में जहाँ पशुबल को स्वीकार करते हैं, वहीं दूसरी ओर आत्बल के प्रति भी आग्रहशील है । इसमें संदेह नहीं है कि मनुष्य परमात्मा नहीं है, किन्तु अतः वह उससे भिन्न भी नहीं है। “आदम खुदा नहीं, लेकिन खुदा के नूर से आदम जुदा नहीं है”, गाँधी जी यह सूक्ति प्रायः दुहाराया करते थे उनके नीति विचार का मूल तत्व यहीं है।

यद्यपि हम सब पशुबल को लेकर जन्मे हैं, किन्तु हमारा जन्म ईश्वर की प्राप्ति के लिये हुआ है। यहीं वह बात है जो मनुष्य को पशु से अलग रकतीं है । मनुष्य आरम्भ में पाश्विक है, किन्तु वह मनुष्य इसलिये है कि उसमें दिव्य शक्ति विद्यमान है, जिसे वह आत्म-सिद्ध कर सकता है । यह बात दूसरी है कि हममें

से कुछ अपने महत्व को समझ नहीं पाते हैं। वे इस बात से अनभिज्ञ रहते हैं, कि हमारी सत्ता वास्तव में पाश्विक न होकर, आत्मिक है, हिंसक न होकर अहिंसक है। यह अनभिज्ञता हममें- मानव-प्रतिष्ठा जाग्रत होती है। हम पशुवत नहीं रह सकते ।

गाँधी जी का दृष्टिकोण आकाशवादी है। उनके अनुसार कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं है, जो इतना गिरा हुआ हो कि उसे बचाया ही न जा सके । प्रत्येक मनुष्य में प्रेम और अहिंसा का एक कण कहीं न कहीं दीप्त है। मनुष्य तो क्या पशुओं का स्वभाव भी प्रेम के प्रभाव से चित्रित होता देखा गया है।

अतः मनुष्य के बारे में यह सोचना गलत होगा, कि वह कभी सुधर नहीं सकता, अपनी हिंसात्मक वृत्तियों को छोड़ ही नहीं सकता । दूसरी ओर यह भी सच है कि देहधारी होने के नाते मनुष्य कभी पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकता ।

जब तक मनुष्य के पास शरीर है, तब तक उसे कायम रखने के लिये उसे थोड़ी बहुत हिंसा अपनानी ही होगी, किन्तु इससे यह प्रकृतिवादी निष्कर्ष निकाला जा सकता है, कि उसे हिंसा अपनाना चाहिए।

बिना हिंसा किये न रह सकने की सीमाओं को पहचान कर मनुष्य का यह और भी कर्तव्य हो जाता है कि वह हिंसा के दायरे को कम से कम करता जाये और पूर्ण अहिंसात्मक स्थिति के लिये संघर्षशील रहे ।

अहिंसा के चार स्तर

इस प्रकार गाँधी जी की अहिंसा के चार स्तर हैं । यदि हम मानव प्रतिष्ठा के मापदण्ड से अहिंसा के स्तरों में भेद करें तो हम अहिंसा के स्तरों को सही ढंग से जान सकेंगे ।

क्र.कायरहिंसकअहिंसक नीतिज्ञपूर्ण हिंसक
1.निम्न स्तर पर वह कायर है, जो प्रतिकार नहीं करता हैं।कायर मनुष्य से ऊपर का स्तर उस व्यक्ति का है, जो हिंसा द्वारा विरोध प्रकट करता है।इससे भी उच्च स्तर का वह व्यक्ति है जो अहिंसा द्वारा प्रतिकार करता है। जो मन, वचन और कर्म, तीनों से ही अहिंसक है,
2.यह एक ऐसा व्यक्ति हैं जो भय के कारण शारीरिक रूप से भी वह अपना विरोध प्रकट नहीं कर पाता। वह एक सैनिक है, अन्याय के खिलाफ लड़ते-लड़ते अपनी जान तक दे देता है। वह अहिंसा को एक नीति के रूप में अपनाता है, न कि धर्म के रूप में।जिसके लिये अहिंसा नीति न होकर आस्था का विषय है,
3.ऐसा मनुष्य मानव सम्मान को महत्व नहीं देता हैं। ऐसा मनुष्य निंसदेह वीर है।अहिंसक होना उसके लिये उसकी नीति का एक अंश है।ऐसा व्यक्ति मानव के प्रति पूर्ण सम्मान का भाव रखता है।
4.अपने अप्रतिकार द्वारा अत्याचार और अन्याय को बढ़ने का अवसर प्रदान करता है। लेकिन वह भी भयमुक्त नहीं हैं। हिंसा द्वारा वह अन्याय का सफल प्रतिकार नहीं कर सकता। अन्याय और अत्याचार का अपनी पूरी शक्ति से हिंसा द्वारा प्रतिकार करता है।
5.सच तो यह है कि कायरता हिंसा से भी बदतर है, क्योंकि भय की गिरफ्त में मनुष्य कोई भी अपमान सहन कर सकता है।वह स्वयं मर जाने की अपेक्षा दूसरे को मार डालना अधिक पसंद करता है।वह पाप और अशुभ को समाप्त करने के लिए कटिबद्ध है।
6.भय निषेधात्मक शक्ति हीन और नपुंसक है।पापी मनुष्य के प्रति घृणा का भाव नहीं रखता ।

अहिंसा वीरों का अस्त्रः

महात्मा गाँधी अहिंसा को कायरों का नहीं, वीरों का अस्त्र बताते थे । वे कहते थे, अहिंसा शोभा ही वीर व्यक्ति का देती है । कायरता और अहिंसा का कोई तालमेल नहीं बैठता है । कायर तो दब जाएगा, उसे कोई भी वीर घर दबोचेगा। उनके अनुसार अहिंसा एक लगाम की तरह है, जो हमें अत्याचारी कुविचारी एवं हिंसक बनने से बचाती है।

यह हमें बदलने या प्रतिहिंसा की अकल्याणकारी और अपावन भावना से दूर रखती है। अहिंसा के बारे में महात्मा गाँधी ने निम्नांकित विचार पठनीय है।

  1. अहिंसा मनुष्य जाति का कानून है और वह पशु बल से अनन्त गुनी अधिक शक्तिशाली और श्रेष्ठ है।
  2. अहिंसा ऐसे लोगों के लिए लाभकारी सिद्ध नहीं होती, जिनकी प्रेमरूपी भगवान से जीती जागती श्रद्धा नहीं होती है।
  3. अहिंसा से आत्म सम्मान और गौरव की रक्षा होती है।
  4. व्यक्ति अथवा राष्ट्र को अहिंसा के प्रयोग से सम्मान के अलावा अपना सर्वस्व बलिदान करने के लिए तैयार रहना चाहिए ।
  5. ईश्वर तथा प्रेम में निष्ठा रखने वाला व्यक्ति चाहे वह बालक, युवा स्त्री अथवा वृद्ध ही क्यों न हो, अहिंसा रूपी शक्ति से मुक्त होता है ।
  6. यह मानना सर्वथा भ्रामक है कि अहिंसा केवल व्यक्तियों के लिए लाभदायक है. मानव समुदाय के लिए नहीं ।
  7. मेरे जीवन के हर क्षेत्र में अहिंसा सफल होती है।
  8. दुखी दुनिया के उद्वार के लिए अहिंसा के मार्ग के अलावा दूसरा कोई मार्ग नहीं है ।
  9. महात्मा गाँधी कहते थे कि अहिंसा का प्रयोग वह व्यक्ति नहीं कर सकता, जो मृत्यु से डरता हो या जिसमें प्रतिरोध करने की क्षमता न हो ।

महात्मा गाँधी ने अहिंसा की निम्नांकित पाँच विशेषताएँ बताई थीं

  1. अहिंसा में मानव सुलभ सम्पूर्ण अन्तर्निर्हित होती है ।
  2. अहिंसा की शक्ति, अहिंसक व्यक्ति की हिंसा करने की योग्यता न कि इच्छा के अनुपात पर निर्भर करती है ।
  3. अहिंसा बिना किसी अपवाद के हिंसा से श्रेष्ठ है, अर्थात् अहिंसक व्यक्ति की शक्ति सम्पन्नता उसके हिंसक व्यवहार की तुलना में अधिक होता ही है ।
  4. अहिंसा में पराजय का प्रश्न कभी पैदा नहीं होता। हिंसा का परिणाम निश्चित रूप से पराजय है ।
  5. अहिंसा में अन्ततः विजय सुनिश्चत है। यदि विजय जैसे शब्द का अहिंसाक लिए प्रयोग किया ही जाए। वास्तव में जहां पराजय का कोई स्थान ही न हो, वहाँ विजय का कोई अर्थ नहीं होता।

“अहिंसा की मान्यता सर्वव्यापी होती है। व्यक्ति किसी एक कार्य के बारे “अहिंसा तथा दूसरे के बारे में हिंसा का अनुमोदन नहीं कर सकता ।” ऐसा होने पर अहिंसा एक नीति मात्र रह जाएगी न कि जीवन शक्ति ।

उपसंहार

महात्मा गांधी का कहना था कि सत्यरूपी साध्य की खोज का नैतिक क्षेत्र अनिवार्य है और वह खोज हमें अहिंसा रूपी साधका द्वारा ही कर सकते हैं। अतः अहिंसा सत्याग्रह का मूलमंत्र है। सत्य सर्वोच्च कानून और अहिंसा सर्वोच्च कर्तव्य है। सत्य की तरह अहिंसा की शक्ति असीम है ।

अहिंसा इनकी व्यापक है, कि कोई हिंसा भी उसका सहारा लिए बिना खड़ी नहीं हो सकती। हिंसा को अहिंसा का एक विकृत और स्थानच्युत उपेचसंबमकद्ध ‘यप’ भाग हो जगत के बड़े-बड़े हिंसायुक्त आन्दोलनों के मूल में देखें तो वहाँ भी अहिंसा की स्थापना के लिए ही हिंसा क्षमा मार्गी गई हो जहां दूसरों के काज निवारण का भाव हो, जहाँ लोगों के शोषण से व्यक्ति या व्यक्ति समूह व्यक्ति है ।

वहाँ इन पर शोषित लोगों के प्रति होने वाले शोषण और अहिंसा को दूर करने के लिये ही तो हिंसा करता है। मतलब यह है कि हिंसा अहिंसा से पूर्णतः स्वतंत्र और अलग चीज नहीं वह अहिंसा का ही गलत और विकृत प्रयोग है।

महात्मा गाँधी के अनुसारअ हिंसा केवल एक दर्शक नहीं है, बल्कि कार्य करने की एक पद्धति है । हृदय परिवर्तन का साधक है, उन्होंने अहिंसा को वैयक्तिक, आचरण तक ही सीमित न रखकर मानव जीवन की प्रत्येक परिस्थिति में लागू किया ।

गाँधी जी की अहिंसा पारलौकिक शांति या मोक्ष प्राप्ति का ही साधक नहीं है, बल्कि सामाजिक शान्ति, राजनीतिक व्यवस्था, धार्मिक समन्वय और पारिवारिक निर्माण का भी साधक है । यह भाग – हृदय की दिव्यज्योति है। गाँधी जी इस बात की याद दिलाते थकते नहीं थे, कि भारत-हृदय की दिव्य ज्योति राख से ढंक तो सकती है, किन्तु बुझती नहीं । और मार-काट के ‘तो’ भी अहिंसा का नियम गम करता रहता है ।

महातमा गाँधी अहिंसा के सम्बन्ध में कोई कल्पना वादी नहीं वरन् व्यावहारिक थे ।

महात्मा गाँधी को अहिंसा समान्धी मान्यता प्रगतिशील थी और कुछ पारिस्थितियों में हत्या को वे हिंसा नहीं मानते थे। गाँधी अपने आश्रम में गाय के बछड़े को रैबीज से लड़ते हुये देख स्वयं ही अपने अनुयायिओं को बछड़े को जहर देने को कहते हैं, यहाँ पर गाँधी जी कहते हैं, कि किसी प्राणी को पीड़ा से मुक्त करना हिंसा नहीं है।

दूसरा उदाहरण जब पाकिस्तान सरकारदेश के बंटवारे के समय वहाँ हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचार पर गाँधी ने कहा था कि अगर पाकिस्तान सरकार वहाँ हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचार नहीं रोका गया है तो भारत को अपनी सेना भेजना होगा । सन् 1548 में जब पाकिस्तान सेना ने भारत पर आक्रमण किया था तो स्वयं गाँधी जी ने युद्ध के सहमती पत्र में हस्ताक्षर किया था ।

स्वतः ही सिद्ध होती है कि गाँधी भी अहिंसा पर उतना ही बल देते थे, जितना की आवश्यक है ।

गाँधी जी को अहिंसा किसी आक्रमण का दर्शन नहीं है । यह कर्मठता और गतिशीलता कादर्शन अन्यायी के लिए चुनौती है। हिंसक जीव-जन्तुओं के संबंध में गाँधी जी हत्या की अनुमति देते अवश्य हैं, किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि उनके हृदय का यह भाव था कि यदि मनुष्य अहिंसा का पालक यथोचित रीति से करे तो हिंसक जीवन भी मनुष्य को हानि नहीं पहुचायेंगे ।

मनुष्य अपने लक्ष्य को संघर्ष और हिंसा के माध्यम से नहीं तैत्युत अहिंसा के माध्यम से ही प्राप्त कर सकता है। हमारे महान अवतारी पुरुषों ने भी अहिंसा का ही संदेश दिया है।

गाँधी जी को अहिंसा को धारण केवल हिंसा न करके और दूसरे प्राणियों को हानि न पहुंचाने तक ही सर्मित नहीं है, वह एक विश्वव्यापक सिद्धानत है, जिसमें प्रेम और करूणा जीवन को पवित्रता तथा मानव प्रतिष्ठा सम्मिलित है ।

इस प्रकार महात्मा गाँधी ने अहिंसा को हिंसा से सभी दृष्टि से श्रेष्ठ माना है तथा अपने अहिंसात्मक आन्दोलन से उन्होंने विश्व के सामने वह उदाहरण प्रस्तुत किया, जिसकी लोगों को कल्पना भी नहीं थी ।

किन्तु यह सत्य हमारे व्यावहारिक जगत में अहिंसा के रूप में अभिव्यक्त होता है।

गाँधी की अहिंसा नीति समय के साथ प्रभावी होता जा रही है। आज विश्व में हर राष्ट्र शांति और निशस्त्रीकरण पर बात करता नजर आ रहा है। आज गाँधी जी की कही हुई बात, जो उन्होंने अपने समय में कहा था कि “मेरा संदेश मुझसे कही ज्यादा महत्वपूर्ण है। यह संदेश जिस भाषा में अभिव्यक्त हुआ है, उससे कहीं अधिक श्रेष्ठतर है।

यह संदेश स्वयं में एक शक्ति है । मुझे पूरा विश्वास है, कि भारत के नवयुवकों को यह संदेश प्रभावित करेगा। मेरे जीते जी ऐसा हो सकेगा या नहीं इसकी मुझे चिन्ता नहीं, किन्तु होगा अवश्य यह मेरा अटूट विश्वास है । जैसे-जैसे समय बीतेगा और जनता के कष्ट बढ़ते जाएंगे, मेरा यह संदेश उन सभी भारतवासियों के मन में समाता जाएगा, जिनके हृदय संवेदनशील है और भी जो संदेश गाँधी जी ने हमें

दिया वह आज भी हमारे सामने है । परन्तु कुछ लोग इसे गाँधीवाद नाम देते हैं, जो सर्वथा अनुपयुक्त है। क्योंकि गाँधी ने स्वयं कहा था कि में किसी तरह का बाद • स्थापित नहीं करना चाहता और न ही कोई उत्तराधिकारी ।

महात्मा गाँधी ने स्वयं गाँधीवाद का निषेध करते हुए कहा कि गाँधीवाद नाम की कोई चीज नहीं है । मैं अपने पीछे कोई सम्प्रदाय नहीं छोड़ना चाहता । मैंने किसी नवीन सिद्धान्त को उत्पन्न नहीं किया। मैंने केवल शाश्वत सत्य को दैनिक समस्याओं के समाधान में प्रयुक्त किया है ।

सत्य और अहिंसा उतने ही प्रशक्त हैं जितनी पुरानी पहाड़ियाँ हैं । मैंने केवल उनका विस्तृत क्षेत्र में प्रयोग करने का प्रयास किया है । यदि कोई मेरा दर्शन है, जिसे वाद की संज्ञा दी जा सकती है तो वह मेरे कथनों या उक्तियों में सन्निहित है, परन्तु आप उसे वाद नहीं कह सकते । इसके सम्बन्ध में कोई वाद नहीं है।

यह बात सही है किन्तु एक दूसरे के संदर्भ में इस कथन को बिल्कुल भिन्न भी 1 कथन मिलता है । कराँची कांग्रेस के मौके पर 15 मार्च 1931 को अपने कार्यक्रमों का विरोध करने वालों को उत्तर देते हुए महात्मा गाँधी ने कहा था- गाँधी मर सकता है, किन्तु गाँधीवाद अमर रहेगा ।

गाँधीवाद एक ऐसा प्रत्यय है, जिसके उपयोग एवं व्यवहार के विषय में गाँधीवाद विचारक भी एकमत नहीं थे । अनेक विचारकों ने तो इस प्रत्यय के व्यवहार के प्रति भी आपत्तियाँ उठाई हैं । गाँधीवाद के संबंध में भी लोगों के अलग-अलग मत हैं । अतः इस बारे में यह जानना आवश्यक है कि गाँधीवाद नाम की कोई चीज है भी या नहीं ।

आचार्य कृपलानी ने कहा था कि- “मुझे गाँधीवाद पर लिखने को कहा गया है, मैंने इस शीर्षक के स्थान पर गाँधी मार्ग का प्रयोग करना श्रेष्ठ समझा है, परन्तु जिसका प्रयोग राजनीतिक एवं सामाजिक समस्याओं के समाधान के लिए किया जाता है। मैं विश्वास करता हूं, कि गाँधीवाद नाम की कोई चीज नहीं है।”

गाँधी विचार केबल एक जीवन-पद्धति या जीवन का एक दृष्टिकोण है, जसमें न तो अनम्यता है, व अकारिता और न अंतिम रूपता ही। यह हमें केवल दिशा सूचित करता है ।

आचार्य संत विनोबा भावे गाँधी-विचार को सर्वोदय दर्शन के रूप में मानते हैं । उनके अनुसार “वाद” की उत्पत्ति का कारण खण्डित दर्शन है। पूर्ण दृष्टि के बाद वाद 3 क्षीण पड़ जाता है। महात्मा गाँधी का दर्शन सर्वोदय दर्शन है, अतः इसमें कोई वाद नहीं है ।

सन्त विनोबा भावे ने कहा- “महात्मा गाँधी एक सत्यपुरुष थे”, यह तो सभी मानते हैं, लेकिन सत्यपुरूष होने के अलावा वे एक नये विचार के प्रवर्तक भी थे । उन्होंने एक नया जीवन-विचार दिया।

ऐसा नया विचार सभी सत्पुरूषों द्वारा प्रकट नहीं होता, हृदय तो सभी सत्यपुरूषों का एक-सा होता है, लेकिन हर एक की बुद्धि और प्रतिभा अलग होती है, जिसकी प्रतिभा की जिस काल में अधिक आवश्यकता होती है, वह सत्यपुरूष उस काल का युगप्रवर्तक बन जाता है। “महातमा गाँधी ऐसे ही युग-प्रवर्तक सत्यपुरूष थे।”

इन कथनों से यह स्पष्ट है कि विनोबा गाँधी-विचार को एक नवीन, स्वतंत्र एव महत्वपूर्ण विचार मानते हैं, परन्तु उसे बाद की कोटि में रखकर संकीर्ण करना नहीं चाहते थे । 1 इतना सब होते हुए भी गाँधी जी से पहले अहिंसा को कभी भी सत्तामूलक नहीं समझा गया ।

गाँधी जी अहिंसा को न केवल एक नैतिक सद्गुण मानते हैं, बल्कि वे उसे परम् सत्त की एक अभिव्यक्ति भी स्वीकार करते हैं। उनके लिए समस्त जगत अहिंसा पर आधारित है। अहिंसा न केवल मनुष्य में निहित है, प्रत्युत यह संपूर्ण सृष्टि में व्याप्त है । वह जगत का अंतर्निहित सत्य है । वह

व्यावहारिक जगत की एक सकेन्द्रित शक्ति है ।