इस प्रकार गाँधी जी की अहिंसा के चार स्तर हैं । यदि हम मानव प्रतिष्ठा के मापदण्ड से अहिंसा के स्तरों में भेद करें तो हम अहिंसा के स्तरों को सही ढंग से जान सकेंगे ।
कायर
निम्न स्तर पर वह कायर है, जो प्रतिकार नहीं कार्ता । यह एक ऐसा व्यक्ति हैं जो मय के कारण शारीरिक रूप से भी वह अपना विरोध प्रकट नहीं कर पाता । ऐसा मनुष्य मानव सम्मान को महत्व नहीं देता और अपने अप्रतिकार द्वारा अत्याचार और अन्याय को बढ़ने का अवसर प्रदान करता है।
सच तो यह है कि कायरता हिंसा से भी बदतर है, क्योंकि भय की गिरफ्त में मनुष्य कोई भी अपमान सहन कर सकता है। उस समय उसके लिये मानव प्रतिष्ठा कोई महत्व नहीं रखती और वह कोई भी अपराध कर बैठने के लिये तत्पर हो सकता है।
हिंसा, इस अर्थ में, भय से बेहतर है, कि अपेक्षाकृत भय रहित मनुष्य हिंसा का उपयोग कर सकता है । भय निषेधात्मक शक्ति हीन और नपुंसक है। इसके विपरीत, अहिंसा आत्मबल है। गाँधी जी अन्याय के प्रति समय समर्पण की अपेक्षा हिंसा को अच्छा करते हैं, तो उसे हिंसा और अहिंसा की बात नहीं सोचनी चाहिए ।
उस समय वह अपने सम्मान की रक्षा के लिये कोई भी ढंग अपना सकती है। ईश्वर ने उसे दांत और नाखून दिये हैं । उसे उनका उपयोग करना चाहिए । यदि आवश्यकता पड़े तो अपने सम्मान की रक्षा के हेतु मृत्यु का भी वरण कर लेना चाहिए ।
हिंसक
कायर मनुष्य से ऊपर का स्तर उस व्यक्ति का है, जो हिंसा द्वारा विरोध प्रकट करता है । वह एक सैनिक है, के खिलाफ लड़ते-लड़ते अपने जान तक दे देता है । ऐसा मनुष्य निंसदेह वीर है। लेकिन वह भी भयमुक्त नहीं, क्योंकि वह स्वयं मर जाने की अपेक्षा दूसरे को मार डालना अधिक पसंद करता है ।
अहिंसक नीतिज्ञ
इससे भी उच्च स्तर का वह व्यक्ति है जो अहिंसा द्वारा प्रतिकार करता है, किन्तु वह अहिंसा को एक नीति के रूप में अपनाता है, न कि धर्म के रूप में । अहिंसक होना उसके लिये उसकी नीति का एक अंश है, क्योंकि हिंसा द्वारा वह ● अन्याय का सफल प्रतिकार नहीं कर सकता ।
उसके पास हिंसा को संगठित का अवसर और साधन नहीं है, किन्तु वह पूर्णतः भव-रहित नहीं है। हिंसा में अभी तक आस्थावान है और अहिंसा उसके लिये केवल नीति का विषय है । मानव प्रतिष्ठा के मापदण्ड से सर्वोच्च स्तर पर उस मनुष्य को समझ जाना चाहिए ।
पूर्ण हिंसक
जो मन, वचन और कर्म, तीनों से ही अहिंसक है, जिसके लिये अहिंसा नीति न होकर आस्था का विषय है, ऐसा व्यक्ति मानव के प्रति पूर्ण सम्मान का भाव रखता है तथा अन्याय और अत्याचार का अपनी पूरी शक्ति से अहिंसा द्वारा प्रतिकार करता है।
वह पाप और अशुभ को समाप्त करने के लिए कटिबद्ध है, किन्तु पापी मनुष्य के प्रति घृणा का भाव नहीं रखता । हिंसा उसके लिये सत्तामूलक नियम है, अतः वह असत्य के विरूद्ध प्रतिकार की प्रक्रिया में अपना जीवन तक समर्पित करने के लिए सदा तत्पर रहता है, किन्तु दूसरों को हानि पहुंचाने की बात वह कभी सोच तक नहीं सकता ।
वह न केवल वीर है, वरन् भय रहित भी है। उसके पास आत्मबल है । उसके लिए अहिंसा गत्यात्मक रूप में अत्याचार के विरुद्ध आत्मबलिदान तथा स्वेच्छा से दुःख वहन द्वारा प्रतिकार करने का एक माध्यम है। उसके लिये अहिंसा का अर्थ पापी के समक्ष दुर्बलतापूर्वक समर्पण नहीं प्रत्युत उसके अशुभ संकल्प का अपनी समस्त आत्मा से प्रतिकार करना है।
उपर्युक्त व्याख्या से स्पष्ट है कि गाँधी जी की अहिंसा की धारणा निषेधात्मक नहीं, अकर्म का एक जड़ सिद्धान्त नहीं बल्कि एक विधायक नियम है, जिसमें प्रेम जीवन की पवित्रता और मनुष्य की प्रतिष्ठा सम्मिलित है। इस प्रकार की अहिंसा को अपने व्यवहार में लाने से ही मनुष्य को मुक्ति मिल सकती है और यहीं उनके मानववादी दर्शन का नैतिक लक्ष्य है।