सामाजिक भेदभाव के प्रति समता की आवाज उठाने वाले संत महात्मा अय्यंकाली जिनका संदेश था कठिन से कठिन परिस्थितियों में प्रयास से सामाजिक परिवर्तन संभव है।
महात्मा अय्यंकाली दक्षिणी त्रावणकोर राज्य, जो आज समय में केरल का दक्षिण भाग है। आज से करीब 125 वर्ष पहले की बात है। उस समय यह राज्य छुआ-छूत (अस्पृश्यता) जैसी अनेक कुप्रथाओं से इतना पीडित था कि स्वामी विवेकानन्द को इस भू-भाग को एक पागलखाना की संज्ञा देनी पड़ी थी।
महात्मा अय्यंकाली का जन्म 1863 में “पुलया’ जाति में हुआ था। उस समय केरल के उस राज्य की यह मान्यता थी। की उच्च जाति के लोगों के सामने इस पुलया जाति के लोगों का दिखना भी वर्जित था। पुलया जाति को चार वर्णों- ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्र से भी परे अन्त्यज जाति में रखा गया था।
इस जाति के लोग यदि सार्वजनिक मार्ग पर चलते हुए दिख जायें तो उन्हें जान से मार दिया जाता था तथा मारने वाले के खिलाफ कोई भी कार्यवाही राज्य के द्वारा नहीं किए जाने का भी प्रावधान था।
सबसे दुखद एवं शर्मनाक नियम यह था कि “पुलया” जाति की स्त्रियाँ कमर के ऊपर कोई भी वस्त्र धारण नहीं कर सकती थीं। इसके अलावा उन्हें इस निम्न जाति के होने के संकेत देने के लिए अपने गले में एक पत्थरों की माला भी पहननी पड़ती थी। इस जाति के बच्चे न तो किसी विद्यालय में शिक्षा के लिए जा सकते थे और न ही उनके सवर्णो के जैसे अच्छे-अच्छे नाम हो सकते थे।
इस जाति के पुरूष एवं महिलाओं को बहुत कम मजदूरी पर दिन भर बिना किसी साप्ताहिक अवकाश के काम करना पड़ता था। इस जाति की दुर्दशा से दुःखी होकर युवक अय्यंकाली ने इस जाति को उस अभिशाप से मुक्त कराने का प्रण लिया। इसके लिए उन्होंने सबसे पहले अपनी जाति के सैकड़ो युवकों को कुश्ती एवं मल्लयुद्ध इत्यादि का कठोर प्रशिक्षण दिया। इस प्रकार कुशल लड़ाके तैयार हो चुके थे।
सामाजिक कुप्रथा निवारण की दिशा में उन्होंने जो पहला कदम उठाया वह अत्यन्त रोचक है। वे एक सुसज्जित बैलगाड़ी जिस पर सिर्फ उच्च जातियाँ बैठ सकती थीं, जान की बाजी लगाकर खड़े होकर राज्य के सार्वजनिक मार्ग पर चल पड़े। उन्हें यह अंदाज पहले से ही था कि इस कदम के विरोध में उच्च जाति के लोग उन्हें जान से मारने के लिए आएंगे।
अतः अय्यंकाली ने पहले से चिन्हित ऐसे स्थानों पर अपने प्रशिक्षित लड़ाकों को छिपा कर बिठा दिया था। जैसा अनुमान था वही हुआ जब उस स्थान से वह बैलगाड़ी गुजरी तो उन पर जानलेवा हमला किया गया किन्तु पहले से ही छिपे उनके प्रशिक्षित साथियों ने विरोधियों को बुरी तरह से पीटकर भगा दिया। इससे इनके समूह के सदस्यों के साथ ही इनके उत्साह की वृद्धि हुई।
अय्यंकाली ने अपने समुदाय के स्वाभिमान की रक्षा के लिए गांधीजी से पूर्व ही एक अहिंसात्मक सत्याग्रह का उदाहरण पेश किया। इस जाति के लोगों को बिना अवकाश दिए दिनभर कठिन कार्य लिया जाता था। इन्होंने उचित मजदूरी सप्ताह में एक दिन का अवकाश तथा कार्य के दौरान बीच में कुछ समय के आराम की माँग रखी।
माँगें न माने जाने के कारण खेतों पर कार्य करना बंद कर दिया गया। पहले तो जमींदारो ने स्वयं कार्य करना चाहा किंतु वे कर नहीं पाये अंततः उन्हें झुकना पड़ा तथा तीनों माँगें मान ली गयीं।
त्रावणकोर ‘श्रीमूलम’ नाम में के राजा का शासन था। एक बार राजा का जन्मदिन बड़े धूमधाम से पूरे राज्य में मनाया जा रहा था। अय्यंकाली ने अपने समुदाय के हजारों लोगों को राजमार्ग की पुलियाओं के नीचे रात में ही छिपा दिया।
उनके द्वारा पहले से ही एक बैनर तैयार कराया गया था, जिस पर लिखा था कि “महाराज दीर्घायु हो, महाराज को जन्मदिन की बधाइयों।” सूर्योदय होते ही समस्त छिपे हुए लोग बैनर लेकर पुलिया से बाहर निकले तथा राजमार्ग की तरफ चलने लगे। वैनर पर लिखे नारे के कारण अब उनपर कोई आक्रमण नहीं कर सकता था।
इतनी बड़ी भीड़ पर सामंतो द्वारा नियंत्रण करना भी कठिन था। राजा की उनपर नजर पड़ी। महाराज दीर्घ आयु हों बैनर वाले पुलैया जाति के लोगों को श्रीमूलम् राजा पहली बार देखते हैं। उन्होने मंत्री से पूछा- ये काले-कलूटे लोग कौन हैं ? इन्हें मैने इसके पहले कभी नहीं देखा।
मंत्री ने इनके बारे में विस्तार से बताया तथा कहा कि सार्वजनिक मार्गो पर चलने के प्रतिबंध के चलते इन पर आपकी दृष्टि कभी नहीं पड़ी। उन्होंने पूरी घटना को जानकर “श्रीमूलम विधानसभा” का गठन किया तथा अय्यंकाली को इसका एक सदस्य बनाया।
पत्थर की माला आगे से नहीं पहनेगे
इसी प्रकार अय्यंकाली का सविनय अवज्ञा का उदाहरण भी प्रसिद्ध है। जैसा कि पूर्व में बताया गया है कि इस जाति की महिलाओं को गले में पत्थरों की माला पहनने का नियम था । अय्यंकाली ने इस नियम को तोड़ने की योजना बनाई।
एक दिन जब मंच पर राज्य के वरिष्ठ सचिव बैठे हुए थे, उसी समय हजारों पुलया महिलायें प्रविष्ट हुई। उनमें से सबसे पहले दो महिलायें आगे आई और अपने पत्थरों की माला को तोड़कर मंच पर फेंक दिया तथा भविष्य में इसे न पहनने की कसम खाई। इसके बाद एक-एक करके सारी महिलाओं ने भी ऐसा ही किया। मंच के सामने पत्थरों की पहाड़ी बन गई इस प्रकार पत्थर की माला पहनने का नियम समाप्त हो गया
पुलया बच्चे भी शालाओं में पढ़ सकते हैं- इस प्रकार का आदेश अय्यंकाली ने सरकार द्वारा निकलवाया। इसे शुरू करने के लिये एक शाला एवं शिक्षक को भी चिन्हित किया गया। परंतु जब नये छात्रों ने शिक्षक के साथ विद्यालय के भवन में प्रवेश किया तो देखा कि पुराने छात्र खिड़कियों से कूद कर बाहर जा रहे हैं।
ऐसी स्थिति में विरोध को देखते हुए अय्यंकाली खुद एक अलग शाला का निर्माण किया। तो उच्च जातिवालों ने उसको जला दिया। बार-बार जब शालाओं पर आग लगी तो उच्च जाति बच्चे खिडकी द्वारा बाहर भाग रहे हैं। अय्यंकाली ने अपने लोगों को कला सांस्कृतिक कार्यक्रमों द्वारा शिक्षा देना शुरू किया।
जबकि 1900 में ही सार्वजनिक रास्ते में चलने के अधिकार को पुलया लोगों ने प्राप्त किया- शिक्षा और महिलाओं के मामले में 1914 तक लड़ना पड़ा। इसके लिये 1907 में अय्यंकाली ने “Sadhujana Paripalana Sangam” को स्थापित किया। “साधु” का मतलब स्थानीय भाषा में “गरीब” होता है।
1937 में जब गांधी जी केरल गये तो इनकी भरपूर तारीफ की। 1980 में श्रीमती इंदिरा गांधी ने अय्यंकाली की गंभीर मूर्ति को तिरुवंतपुरम कैरियर चौक में उद्घाटन किया, जहाँ पुलया को अस्पृश्य मानने वाले लोग मात्र रहते थे। “महात्मा अय्यकाली” समाज सुधारकों के प्रेरणा के स्रोत बन चुके हैं।
तमिलनाडू के पंजाचर में एक पूरे गाँव के दलित जलाये गये। जब कुछ माता ने अपने बच्चों को बचाने के लिए बाहर फेंका तो उच्च जात बातों ने उन बच्चों को काट कर आग में ही डाल दिया।