गाँधी जी के अनुसार मनुष्य में जहां एक ओर पशुबल है, वहीं दूसरी ओर में आत्मबल भी है। पशुबल मनुष्य की हिंसात्मक वृत्ति की ओर संकेत करता है, जो मानव सत्ता का आधार है। गाँधी जी कहते हैं, कि हम सब मौलिक रूप से कदाचित् पशु थे, किन्तु विकास प्रक्रिया में मनुष्य बन गए हैं।
अब मनुष्य को अंततः अपने लिये या तो उर्ध्वगामी दिशा चुननी होगी अथवा अधोगामी मार्ग अपनाए, खासतौर पर यदि इसे एक आकर्ष रूप से प्रस्तुत तिंकया जाये, किन्तु ध्यान देने की बात यह है कि
पशुबल मनुश्य का स्वभाव नहीं है। उसका वास्तविक सत्य उसकी आत्मा में निहित है। जो हिंसक न होकर, अनिवार्यतः प्रेममय और अहिंसात्मक है। पशुओं में भी आत्मा •सुषुप्त रूप से विद्यमान है, किन्तु वे शारीरिक बल के अतिरिक्त और कुछ नहीं जानते ।
मानव प्रतिष्ठा और सम्मान इसी में है कि मनुष्य आत्मबल को पहचाने और अहिंसा के नियम के अनुसार स्वयं को संचालित करें। मनुष्य में आत्मबल का जैसे ही उदय होता है, वह हिंसक नहीं रह सकता। संक्षेप में वह स्वार्थ और हिंसा से ऊपर उठकर प्रेम के शाश्वत जगत में प्रवेश पा जाता है। वह अपनी उन वृत्तियों में ऊपर उठ जाता है, जो मनुष्य और पशु में सम्मान है ।
इस प्रकार मनुष्य और पशु में भेद करके मनुष्य की प्रकृति में सर्वोच्च स्थान देता है, क्योंकि मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है, जो सजग रूप से हिंसा पर विजय प्राप्त कर आत्मसिद्धि की ओर अग्रसर हो सकता है ।
मनुष्य की गरिमा अहिंसा में है ।
गाँधी जी एक ओर मनुष्य में जहाँ पशुबल को स्वीकार करते हैं, वहीं दूसरी ओर आत्बल के प्रति भी आग्रहशील है । इसमें संदेह नहीं है कि मनुष्य परमात्मा नहीं है, किन्तु अतः वह उससे भिन्न भी नहीं है। “आदम खुदा नहीं, लेकिन खुदा के नूर से आदम जुदा नहीं है”, गाँधी जी यह सूक्ति प्रायः दुहाराया करते थे उनके नीति विचार का मूल तत्व यहीं है।
यद्यपि हम सब पशुबल को लेकर जन्मे हैं, किन्तु हमारा जन्म ईश्वर की प्राप्ति के लिये हुआ है। यहीं वह बात है जो मनुष्य को पशु से अलग रकतीं है । मनुष्य आरम्भ में पाश्विक है, किन्तु वह मनुष्य इसलिये है कि उसमें दिव्य शक्ति विद्यमान है, जिसे वह आत्म-सिद्ध कर सकता है । यह बात दूसरी है कि हममें
से कुछ अपने महत्व को समझ नहीं पाते हैं। वे इस बात से अनभिज्ञ रहते हैं, कि हमारी सत्ता वास्तव में पाश्विक न होकर, आत्मिक है, हिंसक न होकर अहिंसक है। यह अनभिज्ञता हममें- मानव-प्रतिष्ठा जाग्रत होती है। हम पशुवत नहीं रह सकते ।
गाँधी जी का दृष्टिकोण आकाशवादी है। उनके अनुसार कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं है, जो इतना गिरा हुआ हो कि उसे बचाया ही न जा सके । प्रत्येक मनुष्य में प्रेम और अहिंसा का एक कण कहीं न कहीं दीप्त है। मनुष्य तो क्या पशुओं का स्वभाव भी प्रेम के प्रभाव से चित्रित होता देखा गया है।
अतः मनुष्य के बारे में यह सोचना गलत होगा, कि वह कभी सुधर नहीं सकता, अपनी हिंसात्मक वृत्तियों को छोड़ ही नहीं सकता । दूसरी ओर यह भी सच है कि देहधारी होने के नाते मनुष्य कभी पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकता ।
जब तक मनुष्य के पास शरीर है, तब तक उसे कायम रखने के लिये उसे थोड़ी बहुत हिंसा अपनानी ही होगी, किन्तु इससे यह प्रकृतिवादी निष्कर्ष निकाला जा सकता है, कि उसे हिंसा अपनाना चाहिए।
बिना हिंसा किये न रह सकने की सीमाओं को पहचान कर मनुष्य का यह और भी कर्तव्य हो जाता है कि वह हिंसा के दायरे को कम से कम करता जाये और पूर्ण अहिंसात्मक स्थिति के लिये संघर्षशील रहे ।